Friday 26 September 2014

विदेशों से लो सबक देश-प्रेम का



विदेशों से लो सबक देश-प्रेम का

ऐसे नहीं  है कि मैने अपने देश की प्रगति की दिशा में कोई बहुत बड़ा योगदान दिया हो किन्तु मुझे अपने भारत से कोई नाराजगी भी नहीं है। कई बातें ऐसी हैं जो मुझे पसंद नहीं आती, पर मेरे जहन में मेरे देश की सदैव सकारात्मक छवि ही रहती है। और न ही मैं भारत की निंदा को सहन कर सकती हूं। अक्सर मैने ऑफिस में, मैट्रो में, पार्क में या कहीं भी लोगों की बातचीत के जरिए यही पाया है कि लोग खास तौर पर हमारा युवा वर्ग तो देश से बड़ा नाखुश है। वो बात करता है देश के भ्रष्टाचार की , वो बात करता है यहां के खराब सिस्टम की, यहां हर बात के जुगाड़ की, यहां फैली गंदगी की-----------पर जरा सोचिए इसमें भारत की क्या खता है। देश तो लोगों से बनता है। गलती तो हमारी है। मैने आज तक किसी को भी देश की खराब दिशा को सही करने के लिए कुछ करने की बात कहते हुए नहीं सुना। हमारा देश यदि पहले कभी सोने की चिड़िया कहलाता था तो वो भी यहां पर रहने वाले लोगों की वजह से। बिना लोगों के तो देश का कोई अस्तित्व ही नहीं है। यदि हमें भारत की तुलना विदेशों से करनी ही है तो पहले वहां के लोगों की तरह सोचना भी सीखिए। वहां जाकर देखिए कि वहां के लोग अपने देश के प्रति, अपनी भाषा के प्रति, कितने निष्ठावान है। यहां तो लोग बड़े फर्क से कहते हैं भई हमें हिन्दी नहीं आती। बच्चे जब घर में यह जताते है कि हमें हिन्दी में गिन्ती नहीं आती तो हमारे तथाकथित आधुनिक माता-पिता कितना इतराते हैं। और रिश्वत और सिस्टम का उपयोग हम ही हमारे स्वार्थ की पूर्ति करने के लिए करते हैं। जब बात हमारे किसी अपने की आती है तब हमें कोई सच्चाई, ईमानदारी या असूल याद नहीं आते पर दूसरों का वहीं करते देख हम बड़े-बड़े उपदेश झाड़ने लगते हैं। मन में तो हमने दूषित विचारों की खान सजाई ही हुई है और तो और अपने घर के अलावा क्या आपने गली, सड़क, आफिस, मैट्रो, मॉल, बाग- बगीचे, पार्क में गंदगी फैलाने का योगदान नहीं दिया है। इतने कूड़ेदानों के आस-पास होते हुए भी कूड़ा कहां फैंकते हैं आप। यह छोटी-छोटी बातें की आपके देश की छवि संवारेगी । विदेशों में इतनी सफाई है क्योंकि वहां के लोग अपने देश को अपना घर ही मानते हैं दूसरों की सही बातों की चर्चा करना अलग बात है पर कितना ही अच्छा हो कि हम उन बातों को अपने जीवन में भी उतारने की कोशिश करें। अरे आपको विदेशों की नकल ही करनी है तो नकल कीजिए उनके देश प्रेम की, मात्र कपड़ों की, या भाषा को लपेट कर आप क्या कर लेंगे। मेरा आप सभी से एक अनुरोध-



सिस्टम की खराबियों पर, कर तो रहे हो तुम चर्चा
मत भूलो इस जन्म भूमि का तुम पर बड़ा है कर्जा
संवारो इसे, निखारो इसे
अरे देश के नौजवानों तुम अब संभालो इसे

कितना भ्रष्टाचार है, गरीबी की भरमार है
बेरोजगारी की चपेट में, हर कोई लाचार है
पर देश के युवाओं तुम्हारी शिकायतों का ही पहाड़ है
यह भारत है तुम्हारा, नकारात्मकता की छाया से बचा लो इसे

हिन्दुस्तान में रहकर, इसी की मिटटी में चल कर
हिन्दी से कतराकर, जिम्मेदारी से पला झाड़कर
विदेशियों की नकल करके, स्वदेश को भुलाकर
अब बद से बदतर तो न बनाओ इसे


विदेशों की तुम करो पूजा, उनके ही गाओ गीत
चलो उनके ही नक्शेकदम पर , उनसे ही ले लो सीख
रखो अपने वतन का मान मन में,
नजरों में सबके उंचा बनाओ इसे

हर चीज मांगते हो, देना भी कभी तो चाहो
अधिकारों का ढोल पीटते हो, अपने कर्तव्य भी निभाओ
हो तुम भारत के, यही सच है न झुठलाओ इसे---------



     मीनाक्षी भसीन 26-09-14© सर्वाधिकार सुरक्षित










Wednesday 20 August 2014

जीवन की धूप में छाया है मां




सभी को नमस्ते----भई सच कहुं तो मेरे लिए तो हरेक दिन ही मदरस डे होता है क्योंकि अक्सर शादी के बाद मां की जितनी याद, लड़कियों को आती है उतनी शायद ही किसी को आती हो। कहते हैं जब हम किसी के साथ रहते हैं तो हमें उसकी कीमत का अंदाजा नहीं होता। ऐसा नहीं की हम सब अपने माता-पिता को प्यार नहीं करते हैं किन्तु उनके प्यार की याद हमें तब ही आती है जब वो हमसे दूर होते हैं। सच में यह बड़ा अजीब सा रिश्ता होता है। मेरी एक परेशानी चाहे वह छोटी सी ही क्यों न हो अगर मां को फोन पर ही पता लगे, तो पापा कहते हैं कि उनकी नींद उड़ाने के लिए काफी होती है। चाहे वो खुद अपने लिए खाना बनाए या नहीं बनाए, चाहे उनकी अपनी तबीयत जितनी मर्जी खराब हो पर जब मैं जाती हूं तो मुझे खिला-खिला कर वह इतना खुश होती हैं। आप ही बताईए--है दुनिया में कोई ऐसा रिश्ता जिसमें इतना स्नेह हो, इतनी फिक्र हो। हम बहुत किस्मत वाले हैं कि भगवान ने हमें अपना एक रुप हमारे घर में दिया है जो हमेशा हमारी सेवा में तत्पर रहता है वो भी बिना किसी फीस के। सब रिश्तों में कहीं न कहीं लेन-देन आ ही जाता है। पर मां और बच्चों के रिश्ते में सिर्फ देना ही देना है तो आपसे मेरा निवेदन है कि जरा इस रिश्ते की कद्र कीजिए और हरेक दिन को मदरस डे मानिए

---------मीनाक्षी 20-08-14

जीवन की कड़ी धूप में तू शीतल छाया है मां
देह में चाहे घाव लगे हों, तेरा स्पर्श मलहम है मां

मतलबी इस दुनिया में इक तेरा रिश्ता नि:स्वार्थ
चाहे कुछ भी रहे न हमारा तू न छोड़े हमारा साथ
असफलता की घोर सहर में तू सुनहरी किरण है मां

बेपरवाह खुद से रहती, तू सदा रहती बच्चों में लीन
तेरे देने का अंत नहीं कोई, बाकी सब तो हैं दीन हीन
इच्छाओं की प्यासी धरती पर तू इक अर्मत बूंद है मां

जननी तू है संवारती हमारा तन, मन और घर बार
कोशिश कर लें जितनी भी हम, न चुका सकेगें तेरा उपकार
निराकार नहीं है परमात्मा तू ही खुदा , ईश्वर है मां----------


मीनाक्षी भसीन 21-08-14                © सर्वाधिकार सुरक्षित





Wednesday 13 August 2014

न जाने कहां मेरी फाईल खो गई

पिछले सात वर्षों से सरकारी नौकरी कर रही हूं। कई समस्याओं का सामना करना पड़ता है। मैं यह नहीं कह रही हूं कि सब सरकारी लोग एक जैसे होते हैं। किन्तु कुछ परेशानियां सभी दफतरों में एकसमान रुप से सभी झेल रहे होते हैं और तो और आस-पास भी हर जगह लोग सरकारी दफतरों में अपने कटु अनुभवों की चर्चा करते हुए देखे जा सकते हैं। आज आखिरकर मैने अपने लेखनी में इन्हें उतारने की कोशिश की है।
न जाने कहां मेरी फाईल खो गई
मुझे नींद न आए, मुझे चैन न आए, मुझे चैन न आए----
न जाने कहां मेरी फाईल खो गई, न जाने कहां मेरी फाईल खो गई--
सरकारी दफतर में पाकर नौकरी तो जैसे मेरी तकदीर ही सो गई न जाने कहां मेरी फाईल खो गई--

जब भी कोई दूं एप्लीकेशन
मेडीकल, एलटीसी लेने की
इतनी हलचल रहती दिल में
रहती न मैं फिर सोने की
अरे कोई ढूंढ के लाए--- अरे कोई आगे बढाए----- न जाने कहां मेरी फाईल खो गई--
सब कहते हैं, बहुत काम है
टाईम मिले न बतियाने का
फाईलों के ढेर, टेबल पे सजा के
ठेका मिला इन्हें, सीट से गायब हो जाने का
मेरा तन मन कांपे
जाने क्या-क्या भांपे------------ न जाने कहां मेरी फाईल खो गई--
कोसू खुदा को, अरे खुदा
क्यों मेरा ये एक्सीडेंट हुआ
तन का दर्द तो सह लूंगी मैं
पर बैचेनी का यह रोग बुरा
चोरी पर ये सीनाजोरी इनकी ------------ न जाने कहां मेरी फाईल खो गई--
तीन महीने पहले, दे दूं आवेदन
एल टी सी पे जाने का
पर तीन सौ बार गुम हो जाए मेरा कागज
मन न माने अब तो खाने का
कहां कम्पलैंट लिखाउं, कहां फरियाद सुनाउ----- न जाने कहां मेरी फाईल खो गई--
मिली है सर्विस सरकारी, तो कदर तो इसकी जानो तुम
सहने पड़ते तुमको फांके, एहसान खुदा का मानो तुम
अरे कोई जुगत लगाओ
इनकी आत्मा को जगाओ------- न जाने कहां मेरी फाईल खो गई--
आपकी प्रतिक्रियाओं का मुझे इंतजार रहेगा-------
मीनाक्षी भसीन 13-08-14© सर्वाधिकार सुरक्षित

Wednesday 6 August 2014

टेंशन का फैशन



टेंशन का फैशन

बन गया देखो, टेंशन का फैशन
तुम संभालो खुद को, आया टेंशन का फैशन------


बचपन से ही मां कहती थी, पढ़ना लिखना जरुरी है
किसी के आगे हाथ न फैलाना, नौकरी पे जाना जरुरी है
पहले थी पैसे बनाने की टेंशन
अब है पैसे के खो जाने की टेंशन
बन गया देखो टेंशन का फैशन
तुम संभालो खुद को आया टेंशन का फैशन---------


हर दिन मिलते नए लोगों से, नए विचारों की मचती रहे धूम
इंडीपैंडेंट ही होते ही, शादी के मनसूबों को लेते हम चूम
पहले होती, रिश्ते बनाने की टेंशन
बाद में होती है, रिश्ते निभाने की टेंशन
बन गया देखो टेंशन का फैशन
तुम संभालो खुद को आया टेंशन का फैशन---------


इंतजार में तेरे मैट्रो, खड़े-खड़े होती है कल्पनाओं की बारिश
जल्दी से हो जाए मेरी प्रमोशन कब से मन में रही है ख्वाईश
पहली थी नौकरी पा जाने की टेंशन
बाद में होती है आगे निकल जाने की टेंशन
बन गया देखो टेंशन का फैशन
तुम संभालो खुद को आया टेंशन का फैशन---------

ऑफिस का तो मेरे दोस्तों, बड़ा अजब सा चाल-चलन है
काम को कैसे टाला जाए, इनकी नित यह जददोजहत है
पहले होती यहां, नम्बर बनाने की टेंशन
बाद में होती, पोल खुल जाने की टेंशन


बन गया देखो टेंशन का फैशन
तुम संभालो खुद को आया टेंशन का फैशन---------



आप को हमने मारी ठोकर, नमो नमो के मंत्र जपाए
मोदी जी तो करे रोज सैर सपाटे, आम आदमी के दिन अच्छे न आए
अमीरों को रहती खरीददारी की टेंशन
गरीबों को रहती है सूखी रोटी की टेंशन
बन गया देखो टेंशन का फैशन
तुम संभालो खुद को आया टेंशन का फैशन---------


इतनी भीड़ हो गई दिल्ली में साथ चले तो भी खो जाए
प्रदूषण के थप्पेड़े भी सबको, रोगों की चपेट में लाए
पहले होती है युवा बन जाने की टेंशन
बाद में होती है बुढ़ापा आ जाने की टेंशन

मंडे से फ्राईडे तक तो प्रभु हम रेस में दिन रात भागे
शुक्रवार की शाम तक तो थकावट से भूख प्यास भी भागे
शनिवार निकले पेंडिग कामों को निपटाने में
इतवार गुजरे फिर से सोमवार के आने में
पहले थी बीजी हो जाने की टेंशन
अब होती है समय न मिल पाने की टेंशन




आपकी प्रतिक्रियाओं का मुझे इंतजार रहेगा-------
मीनाक्षी 6-08-14© सर्वाधिकार सुरक्षित




Wednesday 16 July 2014

कैसे दे सुरक्षा बेटियों को—पुरुष प्रधान समाज को इंसानियत प्रधान समाज बनाईए और बेफ्रिक हो जाईए




कुछ दिन पहले ही मैने पुरुषों से एक विनम्र आग्रह नामक पोस्ट के द्वारा लड़कियों की व्यथा को प्रकट करने का एक प्रयास किया था। इस पोस्ट के संबंध में मुझे मिलने वाली प्रतिक्रियाओं में मुझे बताया गया कि स्त्री एवं पुरुष दोनों ही समाज के पहिए हैं या यह पुरुष प्रधान समाज है और सदियों से ही रहा है और शायद कब तक रहेगा कुछ कह नहीं सकते। मैं आप सभी के विचारों का तह दिल से आदर करते हुए आप सभी से अपील करना चाहती हूं कि आप समस्या की जड़ों को पहचाने की कोशिश करें। आप सभी के घर में बेटियां तो हैं ही। सुबह-सुबह अखबार भी पड़ते ही हैं सभी—दूसरे पन्ने से तीसरे पन्ने तक हर रोज किसी न किसी लड़की के साथ बलात्कार होने की चार से पांच तक घटनाएं होती ही हैं। मेरे तो पड़ कर, जरा सा विचार करने पर ही रोंगटे खड़े हो जाते हैं। इनकी उर्म तो देखिए—पांच से पंद्रह वर्ष या 82 वर्ष की वृद्ध महिलाएं । युवतियां तो हमेशा से ही इन दरिंदों के चपेट में आती रही हैं। बच्चों को अक्सर हम बाहर भेजते हैं खेलने के लिए, या पास ही की दुकान पर कुछ छोटा मोटा समान खरीदने के लिए या रिश्तेदार भी घरों में आते रहते हैं। देखने में आया है कि ये लोग अक्सर पीड़िता के परिचित ही होते हैं। छोटी बच्चियों को टॉफियों का लालच देते हैं। बच्चे तो वैसे भी कितने भोले होते हैं कितनी जल्दी विश्वास कर लेते हैं ये सभी पर। अब इस स्थिति में सोचिए लड़कियों का गलियों में खेलना भी दूभर हो गया है। ये घटनाएं तो हमें दिन प्रतिदिन शक्की बनाए जा रही हैं। हर वक्त मन में यह डर लगा रहता है कि कौन मनुष्य के भेस में वासना का दरिंदा हमारे घर के आस-पास घूम रहा है। यह समस्या इतना विकराल रुप ले चुकी है कि इसके खात्मे के लिए तो हमें कम से कम अपने बेटों के पालन-पोषण की तो जिम्मेदारी लेनी ही पड़ेगी। क्योंकि हमारी कानून व्यवस्था में तो इतनी खामियां है कि यह इस अंधियारे में कोई रोशनी देने में बेसर साबित हुआ है। क्या हम हमेशा कानून का ही मुंह तकते रहेगें। अरे यह कोई पुरुष प्रधान समाज नहीं है यह तो भेड़िया प्रधान समाज है। हमारा कर्तव्य है कि पहले हम अपने समाज को इंसानियत प्रधान समाज तो बनाएं। किसने दिया हक पुरुषों को कि वो अपने को लड़कियों से बेहतर समझे। ईश्वर की संतान दोनों हैं। आत्मा का वास भी दोनों में है। दोनों ही बराबर है। स्त्रियों और पुरुषों , दोनों ही सृष्टि को आगे बढ़ाने में अपरिहार्य भूमिका निभाते हैं। किन्तु मेरी गुजारिश है कि बदलाव की शुरुवात हमें अपने घरों से ही करनी होगी। बात शैक्षिक वर्ग-अनपढ़, अमीर-गरीब, छोटा-बड़ा, बच्चा-युवा इत्यादि की तो है ही नहीं। आप सभी को पता है कि उल्लेखित सभी वर्ग लड़कियों के उत्पीड़न में शामिल है। जब हर तबके के लड़के लड़कियां एक दूसरे को सम्मान की दृष्टि से देखेगें तो ऐसी घटनाएं कम होने लगेंगी। बूंद-बूंद से ही सागर भरता है। हमें प्रयास करना है कि हमारे घर में जिस बालक का जन्म हुआ है, हम उसे बचपन से ही ये सिखाना शुरु कर दे कि एक दूसरे का सम्मान करना ही सभ्य समाज की निशानी है। और यह जो हम सभी नारा लगाते रहते हैं कि बेटा चाहिए, बेटा चाहिए इसे बदलकर यह कहना शुरु कीजिए शारीरिक रुप से स्वस्थ संतान मिले जिसे जीवन के अच्छे संस्कार देकर हम समाज के लिए अपना कुछ योगदान तो दे सके।
अब आप यह मत कहिएगा कि आपके घर में तो लड़के-लड़की में कोई फर्क नहीं। जरा अपने अंतर्मन को टटोलिए और सोचिए कि सिर्फ कहने से कोई बदलाव नहीं आता है। बदलाव आता है सोच-विचार कर उसे पहले अपने जीवन में उतार कर लाने से-----यदि हम आज से ही अपने मन की जो संकुचित सोच को बदल दें तो कम से कम हमारे घरों से तो कोई ऐसा नहीं बनेगा और यदि मेरे विचारों से किसी एक घर की सोच में कुछ बदलाव आ जाता है तो यही मेरा सबसे बड़ा पुरस्कार होगा। सबसे पहले हमें जिम्मेदारी अपनी लेनी होगी। मैं तो तैयार हूं क्या आप सभी तैयार हैं

आपकी प्रतिक्रियाओं का मुझे इंतजार रहेगा-------
मीनाक्षी 16-07-14© सर्वाधिकार सुरक्षित