कुछ
बात बने
सदियों
से मिटता रहा है पुरुष नारी देह पर
उसके
मन रुपी कमल पे मिटे तो कुछ बात बने--------
वो
कहता है मुझसे झील सी खूबसूरत है तुम्हारी आंखे
काली-काली
मतवाली कजरारी हैं तुम्हारी आंखे
अफसोस
नजर आती नहीं उसे इन आंखों की करुणा
वों
इन आंखों की जुबा समझे तो कुछ बात बने--------
वो
कहता है होंठों पर गजब की कयामत है मेरे
कमल
की दो पतियों से कोमल ये होंठ अंगारे हैं मेरे
काश ! वो देख पाता मासुमियत
इन होंठों की
काश
! वो समझ पाता शिकायत इन होंठों की
जो
चीख-चीख कर कह रहे हैं न खेल हमसे तो खिलौना समझ कर
अगर
इन होंठों को कुछ सम्मान दे तो कुछ बात बने---
वो
कहता है कि मेरा जिस्म चॉंदनी रात है
गुलाब
सा कोमल खिला-खिला
वाह क्या बात है
पर
अगर यही भावनाएं हैं पुरुष तो मुझे तुम्हारी सोच पर तरस आता है
आज
तक न समझ सकी नारी को इक जिस्म ही क्यों समझा जाता है
तलाश
है मुझे इक ऐसे पुरुष की जो मुझे कोई पुतला नहीं इंसान समझे
प्यार
करे मुझसे, मुझे देह का न बाजार समझे
सदियों
से जो अंधकार है नारी जीवन में
कोई
पुरुष दीपक बनकर जले तो कुछ बात बने--------मीनाक्षी 7-05-14
© सर्वाधिकार सुरक्षित
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